यात्रा

सातवीं कक्षा को बात है, पहली कहानी लिखी। कहानी सम्भवतः निम्नस्तरीय रही होगी जिस के लिये उत्साह एवं प्रेरणा जैसा कोई शब्द याद नहीं आता, परन्तु मां सरस्वती के चरण कमलों में यह मेरा प्रथम नमन था। यहीं से एक सिलसिला चला साहित्य सेवा का । नवम् कक्षा तक आते आते बहुत बड़े विद्यालय के छात्र सचिव का कार्यभार सँभालने का अवसर प्राप्त हुआ। मंच पर आते ही छात्र, अध्यापक, नगर एवं घर के सभी लोग “मदन फ़रियादि " के नाम को जानने एवं प्यार करने लगे ।

सन् 1951-52 के आसपास पंजाब में साहित्य सभाओं के गठन का एक दौर सा चला। नगर नगर में साहित्य सभाओं का गठन हुआ ! मेरे अग्रज श्री अमृत लाल जैन (आजकल एस. डी. एम. नूरपुर) की अभिरुचि भी लेखन में होने के कारण हमारे नगर (अहमदगढ़) में साहित्य सभा के गठन का गौरव मेरे निवास स्थान को प्राप्त हुआ—इस दैवयोग के बाद उच्च कोटि के कथाकारों तथा कवियों का सम्पर्क प्राप्त होने लगा, मासिक गोष्ठियों और कवि-दरबारों से शौक-ओ-जौक में खूब रंग आने लगा ।

मैट्रिक पास करते ही उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिये सन् 1954 में गव० कालेज मालेरकोटला में प्रवेश लिया। पढ़ाई की अपेक्षा नगर में होने वाले "कुल हिन्द मुशायरों" में अधिक रुचि लेने लगे । शायरी के अदबो आदाब से जानकारी बढ़ने लगी ।

चन्द मुशायरों में पढ़ने का अवसर भी प्राप्त हुआ तथा पंजाब के जानेमाने कवि जनाव नानक चन्द नाज़, अस्तर रिज़वानी, प्रेम वारबर्टनी तथा दर्द नकोदरी साहिब से हल्की सी मुलाकात भी हुई, मगर यह सिलसिला देर तक न चल सका । अचानक फाईन आर्ट की शिक्षा प्राप्त करने का जबर्दस्त दौरा पड़ा और कालेज की पढ़ाई छोड़ कर गवरनमेंट स्कूल आफ आर्ट पंजाब, शिमला में प्रवेश ले लिया। जीवन की प्रत्येक गतिविधि कला और साहित्य को समर्पित कर दी गई ।

फिर उस समय जब, कला की शिक्षा प्राप्त कर शिमला की पहाड़ियों से मैदानों में उतरे तो लगा मानो युद्ध क्षेत्र में उतर आये हों । मध्यवर्ग की सभी विकट समस्याओं ने बाहें फैला कर स्वागत किया । नौकरी की तलाश, दफ्तरों के चक्कर, आर्थिक अभाव, कुण्ठाएँ , भ्रष्टाचार से साक्षात्कार, कोमल अनुभूतियों तथा आकांक्षाओं ने चैन से बैठने नहीं दिया, आखिर बैठते भी तो कहां ?

साये कहां थे राह में जो बैठते "मदन' "

हम ने किये सफर बहुत सख्तियों के साथ ॥

कुरुक्षेत्र में कई वर्षों से गुमनामी की जिन्दगी गुज़ार रहा था कि "आकार" नामी एक स्थानीय संस्था ने मेरी एक कहानी "हडिड्यों का व्योपारी" को पुरस्कृत किया (1985) , इस के साथ ही एक कविता "ख्यालात भी जल जाएंगे" ,"मदन लाल जैन" के नाम से "सशत " हिन्दी मासिक (1986) में छपी ! बस इस के साथ ही कुरुक्षेत्र के साहित्य प्रेमियों की नज़र मुझ पर पड़ी। आदरणीय "दोस्त भारद्वाज साहिब" की कृपा से अदबी संगम कुरुक्षेत्र से जुड़ गया और आज तक जुड़ा हुआ हूँ ।

आभार

फिक्र के परिन्दों को काव्य संग्रह तक की यात्रा पूर्ण करने के लिए जिन प्रियजनों के आशीर्वाद की मीठी घनी छाया मिली उन में हैं श्री खुशी राम जी वाशिष्ठ राज्यकवि हरियाणा, राज्यकवि प्रो० उदय भानु हंस, जनाब साबिर अबोहरी, प्रो० राना गन्नोरी, श्री बाल कृष्ण बेताब, श्री कृष्ण चन्द्र पागल, प्रो० हिम्मत सिंह जैन, श्री दोस्त भारद्वाज, श्री शेखर जैन, श्री जिनेन्द्र कुमार जैन, श्री जगदीश चन्द्र शास्त्री, उर्दू मरकज तथा अदबी संगम कुरुक्षेत्र के सभी मित्र । स्नेह एंव सहायता के लिए "फिक्र के परिन्दे" इन के साथ प्रिय आशुतोष और गुड ओ-मेन् प्रिन्टर्स, कुरुक्षेत्र के भी हार्दिक आभारी हैं ।

और मैं 'मदन जैन' उन अनन्त ख्यालों, घटनाओं, खामोश आंखों, शहरों, जंग के बादलों, परिन्दों, पराग और फूलों के अतिरिक्त सभी ईमानदार संघर्षों का आभारी हूँ जो मुझे कविता बुनने की प्रेरणा देते हैं ।

जैन भवन

विष्णु कालोनी

कुरुक्षेत्र

मदन जैन